लखनऊ की स्वास्थ्य यात्रा 250 वर्षों में पारंपरिक चिकित्सा और महामारियों से संघर्ष से लेकर आधुनिक अस्पतालों और मेडिकल शिक्षा तक पहुँची है। इस जश्न के बीच, शहर को समानता, किफ़ायत और स्थायित्व जैसे सवालों का भी सामना करना पड़ रहा है।
परंपरागत इलाज से संस्थागत चिकित्सा तक
अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लखनऊ में स्वास्थ्य देखभाल की ज़िम्मेदारी हकीमों, वैद्यों और दाइयों पर टिकी थी। इलाज यूनानी, आयुर्वेदिक और लोक परंपराओं का मिश्रण था।
लेकिन 19वीं और 20वीं शताब्दी में हैजा, प्लेग और चेचक जैसी महामारियों ने इन सीमाओं को उजागर कर दिया। औपनिवेशिक प्रशासकों ने स्वच्छता अभियान, टीकाकरण और सार्वजनिक स्वास्थ्य समितियों की शुरुआत की।
“उन शुरुआती महामारियों ने लखनऊ को यह सोचने पर मजबूर किया कि स्वास्थ्य का मतलब सिर्फ इलाज नहीं, बल्कि रोकथाम भी है,” कहते हैं केजीएमयू के पूर्व प्रोफेसर डॉ. राकेश कपूर।
मेडिकल संस्थानों और आधुनिक स्वास्थ्य सेवाओं का उदय
20वीं शताब्दी की शुरुआत में किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (KGMU) ने चिकित्सा शिक्षा और शोध का नया अध्याय खोला। दशकों बाद, संजय गांधी पीजीआईएमएस (SGPGIMS) ने सुपर-स्पेशलिटी उपचारों के साथ लखनऊ को राष्ट्रीय मानचित्र पर और मज़बूती दी।
उदारीकरण के बाद निजी अस्पतालों, डायग्नोस्टिक सेंटरों और नई तकनीकों ने स्वास्थ्य सेवाओं को और विस्तार दिया। आज लखनऊ में हृदय प्रत्यारोपण, रोबोटिक सर्जरी और डिजिटल टेली-परामर्श जैसी सुविधाएँ मौजूद हैं।
“पहले लोग स्पेशल इलाज के लिए दिल्ली जाते थे,” याद करती हैं 62 वर्षीय कैंसर सर्वाइवर शालिनी श्रीवास्तव। “आज मुझे SGPGIMS में ही विश्वस्तरीय इलाज मिला। यह मेरी माँ के समय में संभव नहीं था।”
चुनौतियाँ और आगे की राह
फिर भी समस्याएँ बनी हुई हैं। ग्रामीण इलाकों के मरीज़ों को अक्सर लंबी दूरी तय करनी पड़ती है, जबकि सार्वजनिक अस्पतालों में भीड़ के कारण इंतज़ार लंबा हो जाता है। महामारी ने ऑक्सीजन संकट और डिजिटल असमानता जैसी कमजोरियों को उजागर किया।
निजी स्वास्थ्य सेवाएँ तकनीकी रूप से उन्नत हैं, लेकिन महँगी भी। “स्वास्थ्य अब आकांक्षी बन गया है,” कहती हैं पब्लिक हेल्थ नीति विशेषज्ञ डॉ. अंजलि वर्मा। “हमें किफ़ायत और समानता सुनिश्चित करनी होगी, वरना अमीर और ग़रीब के बीच स्वास्थ्य असमानता और बढ़ेगी।”
आगे की राह में प्राथमिक स्वास्थ्य, रोकथाम और स्वास्थ्य वित्त सुधारों पर ध्यान देने की ज़रूरत है। लखनऊ की 250 साल की यात्रा भारत की व्यापक कहानी का आईना है।
“हमने घरेलू नुस्खों से लेकर वैश्विक शोध प्रयोगशालाओं तक का सफर तय किया है,” डॉ. कपूर कहते हैं। “लेकिन असली परीक्षा यही है कि क्या हर नागरिक—अमीर हो या ग़रीब—इस प्रगति तक पहुँच बना पाएगा।”