भारत एक ऐसी महामारी से जूझ रहा है जो न तो संक्रामक है, न ही हवा से फैलती है, और न ही तुरंत जानलेवा। लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव भयावह हो सकते हैं। मस्कुलोस्केलेटल डिसऑर्डर्स (MSDs) यानी हड्डियों, जोड़ों और मांसपेशियों से जुड़ी बीमारियां, जो कभी बुज़ुर्गों तक सीमित मानी जाती थीं, अब देश के युवा और कामकाजी वर्ग को तेजी से अपनी चपेट में ले रही हैं।
एक देश, जो दर्द में जी रहा है
देश भर में लाखों लोग लगातार पीठ दर्द, जोड़ों में अकड़न और मांसपेशियों में थकावट का सामना कर रहे हैं। ये शिकायतें अब व्यक्तिगत नहीं रहीं, बल्कि एक बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का संकेत हैं। ऑर्थोपेडिक विशेषज्ञों और सार्वजनिक स्वास्थ्य शोधकर्ताओं का मानना है कि बैठे-बैठे रहने की आदतें, पोषण की कमी, विटामिन D की भारी कमी और खराब कार्यस्थल की आदतें इस संकट को जन्म दे रही हैं।
“अब 30 साल की उम्र के लोग वो जोड़ों की समस्याएं लेकर आ रहे हैं, जो पहले 60 साल की उम्र में होती थीं,” कहते हैं डॉ. बुद्धदेब चटर्जी, अपोलो अस्पताल में वरिष्ठ सलाहकार। “यह चुपचाप शुरू होता है और तब तक गंभीर हो जाता है जब तक लोग चलने-फिरने में तकलीफ महसूस न करें।”
हाल ही में किए गए एक मेटा-विश्लेषण में पाया गया कि भारत के 75% कामकाजी लोगों को मस्कुलोस्केलेटल समस्याएं हैं, जिनमें से 60% को पीठ दर्द, 40% को गर्दन में दर्द और 35% से अधिक को कंधों में दर्द की शिकायत रहती है।
स्क्रीन, तनाव और स्थिर जीवनशैली
इस संकट के पीछे आधुनिक जीवनशैली है—लंबे समय तक डेस्क पर बैठना, स्क्रीन के सामने झुककर काम करना, व्यायाम की कमी और पोषणहीन भोजन। शहरी युवाओं में यह समस्या ज्यादा गंभीर है। इसके साथ-साथ विटामिन D की भारी कमी—जो 70% भारतीयों में पाई गई है—हड्डियों को अंदर से कमजोर बना रही है।
कम आय वाले परिवारों की महिलाओं के लिए स्थिति और भी चिंताजनक है। पोषण की कमी, घरेलू काम का बोझ और स्वास्थ्य सुविधाओं की अनुपलब्धता उन्हें जल्दी ऑस्टियोपोरोसिस और जोड़ों की बीमारियों के खतरे में डालती है।
आर्थिक प्रभाव: दर्द से कहीं आगे
यह केवल स्वास्थ्य की समस्या नहीं है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी गंभीर प्रभाव डाल रही है। दर्द के कारण काम से अनुपस्थिति, पेनकिलर्स पर निर्भरता, और देरी से निदान के चलते कार्यक्षमता घट रही है। मस्कुलोस्केलेटल डिसऑर्डर्स अब भारत में अपंगता के प्रमुख कारणों में से एक हैं।
“लोग दर्द के साथ काम कर रहे हैं, चुपचाप,” कहती हैं डॉ. प्रिया मेहता, दिल्ली की एक फिजियोथेरेपिस्ट। “लेकिन यदि हम अब भी नहीं चेते, तो यह संकट स्वास्थ्य और अर्थव्यवस्था—दोनों पर बोझ बन जाएगा।”
क्या भारत समय रहते कार्रवाई करेगा?
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत को एक विशेष ‘मस्कुलोस्केलेटल हेल्थ मिशन’ शुरू करना चाहिए, जैसे टीबी, मधुमेह या मानसिक स्वास्थ्य के लिए किया गया है।
सुझाए गए कदम:
- औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्रों में वर्कप्लेस एर्गोनॉमिक ऑडिट अनिवार्य किए जाएं।
- सरकारी जागरूकता अभियान, जिसमें जोड़ों और हड्डियों के स्वास्थ्य की जानकारी दी जाए।
- 30 वर्ष की आयु के बाद विटामिन D और बोन डेंसिटी की अनिवार्य जांच।
- प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं में मस्कुलोस्केलेटल हेल्थ को शामिल किया जाए।
“हमें इलाज के बजाय रोकथाम पर ध्यान देना होगा,” डॉ. चटर्जी कहते हैं। “क्योंकि एक बार जो गतिशीलता चली गई, तो उसे वापस लाना बहुत मुश्किल हो जाता है।”
एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राथमिकता
जब भारत अन्य बीमारियों से लड़ रहा है, तब यह एक ऐसी स्वास्थ्य समस्या है जो शरीर के अंदर धीरे-धीरे जड़ें जमा रही है। जोड़ दर जोड़, मांसपेशी दर मांसपेशी—देश की चलने, काम करने और जीने की क्षमता कम होती जा रही है।
अब सवाल यह नहीं है कि हमें कुछ करना है या नहीं। सवाल है: हम कितना जल्दी कुछ करते हैं?