1979 में गर्भवती बेटी को दहेज के लिए जला कर मार डाले जाने के बाद सत्या रानी चड्ढा ने मातम को आंदोलन में बदल दिया। उन्होंने अदालतों से लेकर सड़कों तक दहेज प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया और शक्ति शालिनी संस्था की स्थापना कर पीड़ित महिलाओं के लिए सहारा बनीं।
बेटी की मौत से जन्मा संकल्प
साल 1979 में 20 वर्षीय शशि बाला—छह महीने की गर्भवती—को जलाकर मार दिया गया। कारण था दहेज की माँग। टीवी और फ्रिज देने के बाद भी जब स्कूटर की माँग पूरी न हुई, तो दो दिन बाद बेटी जलती हुई मिली। पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज करने के बजाय दहेज निरोधक कानून के तहत मामूली आरोप लगाए। यहीं से शुरू हुआ सत्या रानी का लंबा और कठोर न्याय संघर्ष।
अदालत से आंदोलन तक
तीन दशकों तक चली लड़ाई के बाद 2000 में दामाद को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराया गया। दिल्ली हाई कोर्ट ने 2013 में इस फैसले को बरकरार रखा, हालांकि वह अब तक फरार है। लेकिन सत्या रानी का संघर्ष केवल व्यक्तिगत न्याय तक सीमित नहीं रहा। 1987 में उन्होंने शाहजहाँ आपा के साथ मिलकर शक्ति शालिनी नामक संस्था बनाई, जिसने हज़ारों पीड़ित महिलाओं को सहारा और न्याय दिलाने का काम किया।
क़ानून और समाज में स्थायी बदलाव
सत्या रानी की लड़ाई ने भारतीय कानूनों को बदला। 1983 में दहेज की परिभाषा का विस्तार हुआ और 1986 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम में धारा 113A जोड़ी गई, जिसमें विवाह के सात वर्षों के भीतर हुई संदिग्ध आत्महत्या को पति या ससुराल पक्ष की जिम्मेदारी मानने का प्रावधान हुआ। सुप्रीम कोर्ट के बाहर बेटी की तस्वीर थामे खड़ी सत्या रानी की छवि आज भी भारत में दहेज विरोधी आंदोलन की पहचान बनी हुई है।
1 जुलाई 2014 को उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी विरासत आज भी हर उस माँ और हर उस बेटी के संघर्ष को जीवित रखती है, जिसने दहेज की आग में अपना सब कुछ खोया। सत्या रानी चड्ढा ने साबित किया कि व्यक्तिगत त्रासदी को सामाजिक परिवर्तन की ताकत में बदला जा सकता है।