लखनऊ : क्या सोशल मीडिया पर आने वाली हर सूचना सही होती है? क्या इंटरनेट पर आई किसी खबर पर आप भी आंख बंद करके भरोसा कर लेते हैं? उसे सच मानकर कहीं आप भी उसे बढ़ावा तो नहीं देते हैं? अगर ऐसा है तो अपनी इस सोच में थोड़ा बदलाव लाने की जरूरत है। खासतौर पर जब मामला किसी महिला की इज्जत से जुड़ा हो।
जरा सोचिए कि किसी महिला के साथ कोई गलत हरकत, छेड़छाड़ या बलात्कार नहीं हुआ हो लेकिन किसी पोस्ट या बहकावे में आकर आप उसे सोशल मीडिया पर लगातार अपलोड करें, वॉट्सऐप पर फारवर्ड करें तो क्या होगा? कानूनन ये पूरी तरह से गलत है। लेकिन इसके दूसरे पहलू के बारे में भी सोचिए कि क्या अगर वही पीड़ित महिला या लड़की अपने परिवार की होती तो भी हम ऐसा ही करते? नहीं ना। तो फिर ऐसा क्यों?
लिहाजा, ऐसा करने वालों के खिलाफ अब यूपी सरकार कार्रवाई करने का मन बना लिया है। आज के परिवेश में ये बेहद जरूरी भी है। क्योंकि गलत और फर्जी सूचना को आगे बढ़ाने से मामला अचानक तूल पकड़ लेता है। इसका ताजा उदाहरण यूपी के उन्नाव मामले में सामने आया।
उन्नाव में गलत सूचना देने पर कांग्रेसी नेता उदित राज पर हुई एफआईआर
अभी हाल में ही उत्तर प्रदेश के उन्नाव में तीन लड़कियां बेहोशी की हालत में मिली थी। इनमें से दो की मौत हो गई। तीसरी अब ठीक स्थिति में है। ये खबर जब शुरुआत में आई तब कुछ लोग इसमें बिना सोचे-समझे बलात्कार की तलाश करने लगे थे। पूर्व सांसद उदित राज ने फोन पर किसी से बात करने का हवाला देकर सोशल मीडिया पर बलात्कार होने की पुष्टि भी कर दी थी। लेकिन ना ही मेडिकल रिपोर्ट और ना ही पोस्टमॉर्टम में बलात्कार जैसी कोई बात सामने आई।
अब सोशल मीडिया या मेन स्ट्रीम मीडिया में जिन लोगों ने भी बिना सच जाने तीनों लड़कियों से बलात्कार होने या बलात्कार का अंदेशा जता दिया था, अब उनके साथ क्या किया जाना चाहिए? वैसे तो पुलिस ने उदित राज के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि आगे से किसी लड़की के बेहोश मिलने पर ही उसके साथ बलात्कार होने की हम आशंका नहीं जताएंगे? शायद इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि हम मीडिया और सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखने या बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। क्या यही है हमारी आजादी? लिहाजा, जरूरी है कि ऐसी गतिविधियों पर नजर रखी जाए।
डॉक्टर के बजाय सोशल मीडिया पर हम खुद ही बलात्कार क्यों तय करते हैं?
बलात्कार। सिर्फ एक शब्द है लेकिन रूह कंपाने के लिए काफी है। मनोदशा ऐसी कि इंसानियत शर्मसार हो जाए। जिसके साथ ये घटना हो, उसके हालात को कोई भी दूसरा महसूस नहीं कर सकता। चाहे वो कितना भी करीबी क्यों ना हो। मां या पिता भी नहीं। लेकिन अब सोशल मीडिया के जमाने में बलात्कार दिल झकझोर देने वाली कोई घटना नहीं रही।
अब सिर्फ ये एक शब्द बनकर रह गया है। जब मन किया, जिसके साथ जोड़ना चाहा…हम जोड़ दे रहे हैं। कोई लड़की बेहोश मिली। या गुमसुम मिले। या जंगल में मृत मिले। या कई दिनों तक लापता होने के बाद संदिग्ध हालात में मिले। वो कुछ कहे या ना कहे…लेकिन हम मान लेते हैं कि उसके साथ …कुछ तो हुआ ही होगा।
ऐसा कैसे हो सकता है कि लड़की कहीं अकेली थी और उसके साथ कुछ भी ना हुआ हो? खासतौर पर जब कोई आपत्तिजनक हालत में बेहोश मिले। कपड़े किन्ही भी वजहों से फट गए हों। चाहे किसी जानवर ने ही नोंच दिए हों। या फिर जंगल में किसी कांटे से फंसकर फट गए हों। शायद हम इन बारे में नहीं सोचते। सोचते हैं सिर्फ वही कि…कुछ तो हुआ ही होगा।
फिर अपनी सोच को किससे बताएं..तब याद आती है मीडिया की। अगर ये घटना किसी न्यूज चैनल या अखबार में नहीं आई तो सोशल मीडिया तो सबसे बड़ा प्लैटफॉर्म है ही। यहां हमें कौन रोक सकता है? तुरंत हम ट्वीट कर देते हैं। या फिर फेसबुक पर पोस्ट डाल देते हैं।
ये भी नहीं हुआ…तो व्हाट्सऐप पर कुछ लाइन लिखकर 4-5 ग्रुप में तो डाल ही देंगे। इसमें मेरा क्या जाता है? लेकिन उनसे पूछिए…उनके परिवार से पूछिए…जिस इज्जत को बचाने के लिए लोग ताउम्र गुजार देते हैं। जिसके साथ कुछ नहीं हुआ हो लेकिन फिर भी हम सोशल मीडिया से उसका बलात्कार कर देते हैं। कभी खुद से पूछिए कि अगर वो अपने परिवार या पहचान वाली लड़की होती तो कैसा लगता?
क्या वाकई हम सोशल मीडिया जानवर बन चुके हैं?
दार्शनिक अरस्तू ने कहा था कि इंसान एक सामाजिक जानवर है (The man as a Social Animal)। कई सदी पहले कही गई उनकी ये बात आज प्रासंगिक नजर आ रही है। वाकई हम सोशल मीडिया जानवर बन चुके हैं। बिना सोच-समझे। बिना किसी भावना को समझे। तथ्य को परखे। जो सुना या फिर कहीं देखा, बस उसे ही सच मान लिया। और किसी को बलात्कार पीड़ित बता दिया।
हमारे संविधान ने हमें अनुच्छेद-19 (1)(a) में ये ताकत दी है कि हम अपनी कोई बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं। मीडिया को भी संविधान के इसी प्रावधान से ताकत मिली है। लेकिन इसी संविधान में अनुच्छेद-19(2) में इस ताकत पर पाबंदियां भी हैं। लेकिन इसे हम नजरअंदाज कर देते हैं। हमारे कानून के सीआरपीसी सेक्शन-327(3) में भी ये कहा गया है कि बलात्कार के मामले को बिना कोर्ट की अनुमति या पुष्टि के बिना सार्वजनिक नहीं किया जा सकता है।
लेकिन शायद ही हम इस कानून को मानते हैं। लिहाजा, ये सच है कि किसी छुपे मामले को या फिर जानबूझकर किसी घटना पर पर्दा डाला जा रहा हो तो जिस सोशल मीडिया की ताकत से हम उसे उजागर करके इंसाफ दिलाते हैं, अगर उसी ताकत का हम इस तरह से मिसयूज करने लगे तो वो दिन दूर नहीं जब हमारी ताकत उस रेत की तरह रह जाएगी जो बंद मुट्ठी में तो मजबूत दिखेगी लेकिन हाथ खुलते ही भरभराकर गिर जाएगी। इसलिए सोशल मीडिया की ताकत को बनाए रखने के लिए हमें अपने विवेक, संयम और सच्चाई के साथ इसका इस्तेमाल करना होगा।