आधुनिक स्त्री रोग विज्ञान के अस्तित्व में आने से सदियों पहले, भारत के आयुर्वेदाचार्य महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर विस्तृत निर्देश तैयार कर चुके थे। चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, और अष्टांग हृदय जैसे ग्रंथों में मासिक धर्म, प्रजनन क्षमता, गर्भधारण और प्रसव उपरांत देखभाल से जुड़े नियमों का उल्लेख मिलता है।
लेकिन जैसे-जैसे भारत पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक चिकित्सा के मेल की ओर बढ़ रहा है, विशेषज्ञ पूछ रहे हैं: क्या इन प्राचीन अवधारणाओं में अब भी प्रासंगिकता है? और क्या कुछ बातों को समय के साथ चुनौती देना जरूरी हो गया है?
मासिक धर्म: विज्ञान और वर्जनाओं के बीच
आयुर्वेद में मासिक धर्म को केवल शारीरिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानसिक, भावनात्मक और आहार से जुड़ा एक समग्र अनुभव माना गया है। राजस्वला परिचर्या के तहत इस दौरान महिलाओं को विश्राम, हल्का भोजन, और मानसिक शांति की सलाह दी जाती थी।
जहां यह दृष्टिकोण हार्मोनल असंतुलन और थकान को समझने के लिहाज से आगे का था, वहीं कुछ नियम — जैसे सामाजिक अलगाव या ‘अशुद्धता’ से जुड़ी धारणाएं — आज के संदर्भ में विवादास्पद मानी जाती हैं।
“शुरुआती सोच शरीर की रक्षा के लिए थी, लेकिन समय के साथ यह सामाजिक भेदभाव का आधार बन गई,” कहती हैं डॉ. श्वेता राव, इंटीग्रेटिव गायनेकोलॉजिस्ट।
गर्भधारण और प्रजनन: अनुशासन और प्रकृति का संतुलन
गर्भधारण को लेकर आयुर्वेद में बेहद सूक्ष्म दृष्टिकोण था। गर्भ संस्कार जैसी प्रक्रियाएं केवल शारीरिक ही नहीं, मानसिक और भावनात्मक तैयारी पर भी बल देती थीं। सही समय, शुद्ध आहार, और शरीर के दोषों (वात, पित्त, कफ) के संतुलन को आवश्यक माना गया।
प्रजनन क्षमता बढ़ाने के लिए शतावरी, अश्वगंधा, विदारीकंद जैसी औषधियों की सलाह दी जाती थी। आधुनिक विज्ञान भी अब मानता है कि तनाव, पोषण और हार्मोनल असंतुलन का गहरा असर प्रजनन पर पड़ता है।
हालांकि आलोचक यह भी कहते हैं कि पुराने समय में बांझपन के लिए महिलाओं को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति थी, और कई बार इसे कर्म या नैतिक कारणों से जोड़ा गया।
“आयुर्वेद में जीवनशैली आधारित समझ जरूर थी, लेकिन इसमें पितृसत्तात्मक सोच भी घुली हुई थी,” कहती हैं डॉ. नंदिता सिन्हा, प्रजनन स्वास्थ्य विशेषज्ञ।
प्रसव के बाद देखभाल: समय से पहले की सोच
आयुर्वेद में प्रसव उपरांत काल (सूतिकाकाल) को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया। 40 दिनों की इस अवधि में मां को विश्राम, गर्म तेल से मालिश (अभ्यंग), पाचन सुधारने वाली औषधियां (दशमूल क्वाथ), और विशेष आहार देने की परंपरा थी।
आज जब ‘चौथे तिमाही’ यानी पोस्टपार्टम देखभाल पर दुनिया भर में ज़ोर बढ़ रहा है, आयुर्वेद की यह अवधारणा फिर से चर्चा में है।
“आधुनिक पोस्टपार्टम केयर वही दोहरा रही है, जो हमारे ग्रंथों में सदियों पहले लिखा गया था,” कहती हैं डॉ. राव।
हालांकि, आलोचक यह भी इंगित करते हैं कि इन ग्रंथों में अक्सर महिला की इच्छा या निर्णय की भूमिका गौण रही है — और कई बार मातृत्व को केवल पुरुष वंश की निरंतरता से जोड़ा गया।
अतीत से सीखें, लेकिन आंख मूंदकर न अपनाएं
व्यक्तिगत चिकित्सा, हार्मोनल चक्र की समझ, और मानसिक स्वास्थ्य को संपूर्ण स्वास्थ्य का हिस्सा मानने जैसी अवधारणाएं आज के समय में आयुर्वेद को एक प्रासंगिक मंच प्रदान करती हैं।
पर विशेषज्ञ चेताते हैं कि अंध-गौरव से बचना होगा।
“हमें यह तय करना होगा कि हम विज्ञान को पुनः खोज रहे हैं या वर्जनाओं को पुनः स्थापित कर रहे हैं,” कहती हैं डॉ. सिन्हा। “प्राचीन ज्ञान का उद्देश्य होना चाहिए — महिला को सशक्त करना, सीमित नहीं।”
आज जब महिला स्वास्थ्य वैश्विक विमर्श का केंद्र बन रहा है, तब आयुर्वेद से हम न केवल उपचार की विधि, बल्कि देखभाल की परिभाषा भी दोबारा सीख सकते हैं।