भारत में आवारा कुत्तों की बढ़ती समस्या एक बार फिर सुर्खियों में है। हाल ही में संसद में प्रस्तुत सरकारी आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2024 में देशभर में कुत्तों के काटने के 37 लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए, जिनमें कम से कम 54 संदिग्ध मानवीय रेबीज से मौतें हुईं। इन आंकड़ों ने देश की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और पशु नियंत्रण ढांचे को लेकर गंभीर चिंता पैदा कर दी है।
सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट का विस्तार
राष्ट्रीय रेबीज नियंत्रण कार्यक्रम के तहत राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र द्वारा संकलित आंकड़े इस संकट की गंभीरता को दर्शाते हैं, जिसे लंबे समय से नजरअंदाज किया गया है। कुत्तों के काटने की घटनाएं अब केवल मामूली चोट तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि ये घटनाएं जानलेवा रूप लेती जा रही हैं—विशेष रूप से ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में जहां चिकित्सा सुविधाएं समय पर नहीं पहुंच पातीं।
भारत में दुनिया की सबसे बड़ी आवारा कुत्तों की आबादी में से एक है—60 मिलियन से अधिक। चूंकि देश में रेबीज अब भी स्थानिक है, विशेषज्ञ वर्षों से चेतावनी दे रहे हैं कि नसबंदी और टीकाकरण की असंगत योजनाएं गंभीर नतीजे ला सकती हैं।
“यह अब केवल पशु नियंत्रण का मुद्दा नहीं रह गया है,” बेंगलुरु की जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. कविता बंसल ने कहा। “यह मनुष्य और पशु दोनों के स्वास्थ्य की सुरक्षा में प्रणालीगत विफलता है।”
राज्यों में बिगड़ते हालात
यह संकट विशेष रूप से दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में अधिक गंभीर रूप ले चुका है। केरल ने 2024 में 3.16 लाख से अधिक काटने के मामले दर्ज किए और कम से कम 13 संदिग्ध रेबीज से मौतें भी हुईं। तमिलनाडु में रेबीज से होने वाली मौतें 2023 के 18 से बढ़कर 2024 में 43 हो गई हैं। राजस्थान में भी 4.22 लाख से अधिक मामलों की सूचना मिली है, जिससे नगर निकाय और अस्पतालों पर भारी दबाव पड़ा है।
पुणे के पिंपरी-चिंचवड़ क्षेत्र में मात्र तीन महीनों में 8,000 से अधिक घटनाएं सामने आईं, जिससे स्थानीय नसबंदी अभियानों की प्रभावशीलता पर सवाल उठने लगे। वहीं महाराष्ट्र के एक गांव में एक बछड़े की संदिग्ध रेबीज मौत के बाद 1,000 से अधिक लोग टीके लगवाने अस्पतालों में उमड़ पड़े—हालांकि अधिकारियों ने बाद में स्पष्ट किया कि दूध से संक्रमण की संभावना न के बराबर थी।
कांग्रेस सांसद कार्ति चिदंबरम ने संसद में कहा, “अब हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते,” और एक राष्ट्रीय नीति समीक्षा की मांग की।
रेबीज: अब भी जानलेवा, फिर भी पूरी तरह से रोके जाने योग्य
हालांकि रेबीज को पूरी तरह से रोका जा सकता है, फिर भी यह बीमारी हर साल कई जिंदगियां लील लेती है—खासकर वहां जहां जागरूकता की कमी है, इलाज में देर होती है, और ग्रामीण क्षेत्रों में ज़रूरी दवाएं अनुपलब्ध होती हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, वैश्विक रेबीज से होने वाली मौतों में से एक तिहाई से अधिक भारत में होती हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि केवल कुत्तों की संख्या नियंत्रित करना पर्याप्त नहीं है—जरूरत है एक सुदृढ़ और सार्वदेशिक टीकाकरण अभियान की, जो मनुष्यों और कुत्तों दोनों को शामिल करे।
भारत ने 2030 तक कुत्तों से होने वाले रेबीज को समाप्त करने का लक्ष्य तय किया है, लेकिन इसकी राह अब भी कठिन है। केंद्र सरकार राज्य सरकारों को पशु टीकाकरण के लिए ‘पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण कार्यक्रम’ के तहत फंड मुहैया कराती है, लेकिन जमीनी स्तर पर इसके कार्यान्वयन में भारी असमानता है।
मुआवज़े की देरी, न्याय अधूरा
जो लोग कुत्ते के हमले से बच भी जाते हैं, उन्हें कानूनी और प्रशासनिक झंझटों से जूझना पड़ता है। केरल में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त एक पैनल—जिसे पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिए बनाया गया था—एक वर्ष से निष्क्रिय पड़ा है। ₹9 करोड़ से अधिक के दावे अब भी लंबित हैं। अन्य राज्यों में भी पीड़ितों को कानूनी सहायता या इलाज में देरी का सामना करना पड़ता है।
जनस्वास्थ्य विशेषज्ञ और पशु अधिकार कार्यकर्ता इस बात पर एकमत हैं कि समस्या नीयत की नहीं, क्रियान्वयन की है।
डॉ. बंसल कहती हैं, “जब तक नगर निकाय, पशु चिकित्सा विभाग और स्वास्थ्य प्रणाली के बीच समन्वय नहीं होगा, यह संकट और गहराता जाएगा। हम केवल लक्षणों का इलाज कर रहे हैं, जड़ पर वार नहीं कर रहे।”