भारत की स्वतंत्रता आंदोलन की लंबी यात्रा में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की एक ऐतिहासिक पहल ने धार्मिक आस्था को राष्ट्रवाद से जोड़ा। वर्ष 1893 में तिलक ने गणेश चतुर्थी को घरों तक सीमित निजी उत्सव से निकालकर एक सार्वजनिक त्योहार का रूप दिया—और इसे ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनजागरण का औज़ार बना दिया।
धार्मिक आस्था से राजनीतिक रणनीति
औपनिवेशिक शासन के दौर में अंग्रेज़ों ने राजनीतिक सभाओं पर प्रतिबंध लगा रखा था। लेकिन धार्मिक आयोजनों को ऐसी पाबंदियों से छूट मिली हुई थी। तिलक ने इसी कानूनी खिड़की का इस्तेमाल किया। उन्होंने गणेशोत्सव को सार्वजनिक स्वरूप देकर इसे जाति-पांति से परे लोगों को एकत्रित करने और राष्ट्रीय चेतना जगाने का मंच बनाया।
पंडाल बने राष्ट्रवाद के केंद्र
गणेश पंडालों में केवल पूजा ही नहीं, बल्कि लोकनाट्य, कवि सम्मेलन, व्याख्यान और राष्ट्रवादी गीतों के कार्यक्रम आयोजित होने लगे। इन आयोजनों ने जनता को यह एहसास कराया कि सांस्कृतिक एकता ही राजनीतिक स्वतंत्रता की पहली सीढ़ी है।
समाज और राजनीति का संगम
इस कदम ने हिंदू समाज में ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मणों के बीच की खाई को पाटने का काम किया। साथ ही, लोगों को यह अवसर मिला कि वे खुलेआम मिलें-जुलें और स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार के साथ ब्रिटिश शासन के खिलाफ आवाज़ बुलंद करें।
एक त्योहार, एक आंदोलन
लोकमान्य तिलक की इस दूरदर्शी पहल ने गणेशोत्सव को भक्ति तक सीमित न रखकर उसे स्वतंत्रता आंदोलन का सामूहिक प्रतीक बना दिया। इसने महाराष्ट्र से लेकर पूरे भारत में जनचेतना और एकजुटता की ऐसी लहर पैदा की, जिसने आज़ादी की लड़ाई को नई दिशा दी।