आधुनिक जीवन की जटिलताओं और अध्यात्म की खोज के बीच एक सवाल फिर से उभर रहा है: क्या हमारी चेतना, जो संभावनाओं से भरपूर है, जीवन भर शरीर के सबसे मूल स्तर पर ही अटकी रह जाती है?
योगशास्त्र में वर्णित सप्तचक्रों में सबसे पहला चक्र है — मूलाधार चक्र। यह चक्र गुदा और लिंग के मध्य स्थित होता है और इसे जीवन का आधार बिंदु माना जाता है। इसके चार पंखुड़ियों वाले प्रतीक को शक्ति और स्थायित्व का मूल केंद्र कहा गया है। कई योग और तंत्र ग्रंथों के अनुसार, 99.9% लोग इसी चक्र पर केंद्रित चेतना के साथ जीवन जीते हैं और यहीं पर मृत्यु को प्राप्त होते हैं।
एक ऊर्जा केंद्र जो स्थायित्व तो देता है, लेकिन विकास नहीं
मूलाधार, संस्कृत शब्दों में “जड़ और आधार” का समावेश है — यह वह स्थान है जहाँ से मानव चेतना की यात्रा आरंभ होती है। लेकिन यह यात्रा आगे बढ़े, इसके लिए प्रयास आवश्यक है। अधिकांश लोग अपनी ऊर्जा को भौतिक सुखों — भोजन, निद्रा, संभोग और सुरक्षा — में ही केंद्रित रखते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति केवल सर्वाइवल मोड में रहता है, जहां जीवन की गहराई और विस्तार की कोई अनुभूति नहीं हो पाती।
“यह एक ऊर्जा बंदी की स्थिति है,” कहते हैं स्वामी योगविरंची, एक प्रख्यात योग विशेषज्ञ। “जब तक मूलाधार चक्र के पार जाने की चेष्टा नहीं होती, चेतना विकास नहीं करती — केवल जड़ बनी रहती है।”
आधुनिक संदर्भ में मूलाधार: सिर्फ एक आध्यात्मिक अवधारणा नहीं
हाल के वर्षों में मनोवैज्ञानिक और न्यूरोसाइंटिस्ट भी यह मानने लगे हैं कि सर्वाइवल सेंटर — जैसा कि मूलाधार को योगिक संदर्भ में कहा जाता है — वास्तव में मानव व्यवहार को संचालित करने वाले गहरे कारकों में से एक है। जब व्यक्ति भय, लालसा, या असुरक्षा से ग्रसित होता है, तब उसकी ऊर्जा इसी चक्र के आसपास काम करती है।
इसका प्रभाव न केवल मानसिक स्वास्थ्य, बल्कि निर्णय क्षमता और रिश्तों पर भी पड़ता है।
क्या चेतना का ऊर्ध्वगमन संभव है?
योगशास्त्र में कहा गया है कि चेतना का विकास तभी संभव है जब व्यक्ति मूलाधार से ऊपर उठकर स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और अंततः सहस्रार की ओर यात्रा करे। यह प्रक्रिया कुंडलिनी जागरण के माध्यम से होती है, जिसमें जीवन ऊर्जा को क्रमशः ऊपर की ओर प्रवाहित किया जाता है।
“मूलाधार वह द्वार है, जिससे गुजरकर चेतना आकाश तक उड़ान भर सकती है,” स्वामी मुक्तिबोधानंद अपनी पुस्तक स्वर योग में लिखते हैं। “लेकिन यह तभी संभव है जब व्यक्ति अपने जीवन को केवल भोग तक सीमित न रखे।”
जड़ से ऊपर उठने की पुकार
आज जब भौतिक प्रगति के बावजूद मानसिक अशांति और उद्देश्यहीनता बढ़ रही है, तब यह आवश्यक हो गया है कि हम अपने चक्रों को केवल प्रतीक नहीं, बल्कि स्वयं के भीतर के यंत्र के रूप में समझें। मूलाधार चक्र चेतना की जड़ अवश्य है — लेकिन वहीं रुक जाना मानव जन्म की संभावना का सीमित उपयोग है।